रविवार, 22 फ़रवरी 2009

भिखारी

भिखारी

चौंकिये मत! टाईटल देखकर, मै कोई साम्य्वादी विचार धारा का लेखक नही, आधुनिक ब्लाँगर हूँ। अब आप मैरे ब्लाँग 'चौथा बंदर'' पर ही पधारे है तो परिचय देने की आवश्यकता कहाँ? पहले भी हम दो-तीन ब्लागों पर आमने-सामने हो चुके है [अथ श्री मानव कथा, अथ श्री बंदर कथा एवं चौथा बंदर में...http://mansooralihashmi.blogspot.com]। अब क्योंकि हमारे समाज में सामाजिक एवं राजनैतिक गतिविधिया सीमित है और आर्थिक तो न के बराबर इसलिये विषय का बड़ा टोटा है। ले-दे कर समुन्नत मानव समाज पर ही नज़र जाती है। वैसे भी मनुष्यों ने हमे सब जगह मुँह मारने वाला प्राणी घोषित कर ही रखा है तो हम उनकी बात को ग़लत भी क्यों होने दे। अब भूमिका छौड़ कर सीधे काम की बात:

आज सुबह मै और मैरी 'फ़िज़ा', ज़ी हाँ, अब वह पुर्णयत: मैरी हो गयी है, कोई धर्म-वर्म भी बदलना नही पड़ा उसके लिये। शादी के बाद से उसको यह नया नाम दे दिया है, इससे उसके हुस्न में चार 'चाँद' लग जाते है, जब वह अपना नाम सुनकर शरमाती है तो। वह भी प्यार से मुझे 'चाँद साहब' पुकारती है। लिखने-पढ़ने से हम में मनुष्यो जैसे अदब-आदाब भी आ ही गये है। धर्म के अलावा रंग भेद भी हमारे आड़े नही आया, हालाँकि मै कलमुँहा और वह लालमुँही। मनुष्यो को तो 'ओबामा त्योहार' हज़ारों वर्षो में कभी मनाने मिलता है।

हाँ तो मैं कह रहा था कि आज हम दौनो एक बंगले की छत पर बैठे हुए थे [अब थौड़ी सम्पन्नता आ जाने के बाद और शादी भी हो जाने पर आम मकानो पर बैठना कम ही रुचिकर लगता है। सर्दी कि धुंध भरी सुबह में बंगले के दरवाज़े के बाहर निकल कर बंगले के मालिक 'सेठजी' बैचेनी से टहल रहे थे। आँखे फाड़-फाड़ कर चारो और देख रहे थे, बार-बार कलाई-घड़ी भी देखते जा रहे थे। उसी समय बंगले के दरवाज़े के पास से एक ज़नाना आवाज़ उभरी, "क्या हुवा जी, 6 बजने में दो ही मिनिट शेष है, पण्डित जी ने फ़ोन पर बताया है कि 6 बजे पूर्व ही दान हो जाना चाहिये।" अब मैरी समझ में सेठजी की परेशानी का सबब आया, उनकी बंद मुठठी में रुपयो की झलक दिखी। छतो पर बैठने भर की सोहबत से मनुष्य की इस संस्क्रति से से परिचित हो ही गया हुँ कि कुछ ले-दे कर कष्टो का निवारण हो जाता है। मुझे तुरंत ही विचार आया कि क्यों न सेठजी के कष्टो का निवारण मै ही कर दूं, कुछ 'ले' कर ही सही। संयोग से मैरा कद भी उंचा है और ब्लागरी की सभ्यता ने वस्त्रधारी भी बना दिया है, फ़िर 'फ़िज़ा' को तो मै निर्वस्त्र रख ही नही सकता था। आज तो सूट भी चढ़ा रखा है कि हाश्मीजी की बर्थडे [22।02।09] का न्योता भी तो है। मै झट से नीचे कूदा और थौड़े से फ़ासले पर जा कर सड़क पर पहुंच कर दो पांवो पर चलते हुए आगे बढ़ने लगा। जैसा कि अनुमान था सेठजी मैरी तरफ़ लपके और मैरे बढ़े हुए हाथ में कुछ रुपये थमा कर पलट कर भाग लिये। कोहरे की धुंध अभी छटी नही थी, मै वापस छत पर आ लिया। 'फ़िज़ा' नोट गिनने बैठ गई। उधर तेज़ी से पलटते हुए सेठजी की मुठभेड़ दूसरी तरफ़ से आ रहे जिस वयक्ति से हो गयी वह मैरे ब्लाग-गुरु हाश्मीजी निकले [ये नये किस्म के गुरु ब्लागिन्ग की ही देन है]। दोनो भी आपस में परिचित ही निकले, फ़ायदा यह हुआ कि उनके वार्तालाप से 'उस' दान की वास्तविकता जानने का अवसर मिल गया जो इस प्रकार हो रही थी:-
सेठजी: माफ़ करना हाश्मीजी लगी तो नही?
हाश्मीजी: नही जी, कोई बात नही, मगर आप इतनी सुबह और एसी जल्दी में?
सेठजी: इस आर्थिक मण्डी के दौर में भी भिखारियों का अभाव आश्चेय जनक नही?
हाश्मीजी: तो अभी आप किसी को भिक्षा दे कर पलट रहे थे, सड़क पर से!
सेठजी: नही भाई, दान था वह तो। आज रात श्रीमती ने कोई भयावह स्वप्न देखा था, मैरी दुर्घटना हो जाने का,
वह नही चाह्ती कि मैं जल्दी पीछा छुड़ा लूँ। हाथो-हाथ सुबह 5 बजे ही पण्डितजी को फ़ोन कर निवारण पूछ लिया, वह यह कि 6 बजे पूर्व ही मैरे हाथो दान करवा दे - 'बला टल जाएगी'। इधर है कि घंटे भर से कोई भिखारी ही नही आ रहा था, कैसा अजीब शहर है यह! वह तो आख़री मिनिट में मैरा काम हो गया, नही तो आज दिन भर श्रीमती पर जाने क्या बीतती।
हाश्मीजी: क्या आपको यकीन है कि आपने जिसको दान दिया वह भिखारी ही था! [आश्चर्य-मिश्रित जिझासा थी हाश्मीजी के स्वर में जिससे मुझे आशंका हुई कि हाश्मीजी मुझे पहचान गये थे।]
सेठजी: क्या मतलब! भिक्षा और कौन स्वीकार करेगा?

इधर 'फ़िज़ा' जो बार-बार नोट गिन रही थी बड़बड़ाई, "मारवाड़ी कही का, मुझे निन्यानवे के फ़ेर में डाल दिया।", मैने पूछा क्या बात है?,
बोली "सौ में एक कम निकला।", मैरे यह कहने पर कि, शायद सड़क पर मैरे हाथ से कुछ गिरा था, तुरन्त ही नीचे छलांग मार दी, बाकी का रुपया ढूंडने। इधर सेठजी बंगले में चल दिये, मगर हाशमी जी की नज़र 'फ़िज़ा' पर पड़ ही गयी, जो एक नोट थाम कर बंगले की तरफ़ वापस लपक रही थी। उनकी नज़र सीधे छत की तरफ़ उठी, निश्चित ही मुझे ढूंडने के लिये। मैने भी हाथ हिला कर अभिवादन कर दिया। उनके चेहरे की मुस्कुराहट पर मैने यह पढ़ा कि अच्छा है, मनुष्य की 'बला' किसी बन्दर पर 'टल' गई।

-मन्सूर अली हाश्मी [22-02-2009]