सोमवार, 9 मार्च 2009

हिकमत

होली की हार्दिक बधाई ....सब पदाकुओ को...

हिकमत
'तुख़्म--तासीर सोहबत का असर' इस मुहावरे को सार्थक होता देख मैने फ़ैसला किया है कि अच्छे घर

वालो की सोहबत ही भली है, फ़िर वह बंगला भी हो तो कोई बात नही। और फिर बुज़ुर्गो और दाना

लोगो के घरो की छतो का माहौल भी शालीन होता है। फ़िज़ा ने पहले तो नाटक किया कि बंगला नही

छोड़ेगी,जब दाल नही गली तो बोली, "सोच लेते है थोड़े दिन गाँव ही रहकर आये।" संयोग से हकीम साहब

का मकान भी बंगले नुमा ही निकला। छत पर लट्टु घुमाये जाने और पतंगे चगाये जाने के आसार भी

मिले। मतलब यहाँ फ़ुल-टाईम आँकुपेशन की संभावना निरस्त्। ख़ैर, जबतक, जितने दिन 'दाना-पानी'

है;रह लेंगे।
निराश नही होना पड़ा। हकीमसाब का घर हिकमत से खाली कैसे हो सकता था। पतरे की एक पेटी में एक

किताब हाथ लगी [शायद हकीम साहब की ही ब्याज़ हो] अशाआर और मज़ामीन का ख़ज़ाना निकला,

मगर 'दीमकज़दा' अहिंसक तरीके से दीमक से छुट्कारा पाने के लिये पेटी छत पर धूप में रख दी गयी

लगती है। के, शाकिर नाम से लिखी इस डायरीनुमा किताब की पहली रचना ही बड़ी 'धांसू' निकली। ग्यारह

शे'रो में हिकमत ही हिकमत मिली; पेशे ख़िदमत है:-

जहाँ तक काम चलता हो ग़िज़ा से,
वहाँ तक चाहिये बचना दवा से।

अगर तुझको लगे जाड़े में सर्दी,
तो इस्तेअमाल कर अण्डे की ज़र्दी।

जो हो मह्सूस मे'दे में गिरानी,
तो पीले सौंफ़ या अदरक का पानी।

अगर ख़ूँ कम बने बल्ग़म ज़्यादा,
तो खा गाजर,चने,शल्जम ज़्यादा।

जो बदहज़मी में तू चाहे इफ़ाक़ा*,
तो कर ले एक या दो वक्त फ़ाक़ा।*

जो हो 'पैचिस' तो पेट इस तरह कस ले,
मिला कर दूध में लीमूं का रस ले।

जिगर के बल पे है इन्सान जीता,
अगर ज़ोअफ़े* जिगर है खा पपीता।

जिगर में हो अगर गर्मी दही खा,
अगर आंतो में हो ख़ुश्की तो घी खा।

थकन से हो अगर अज़लात* ढीले,
तो फ़ौरन दूध गर्मागर्म पीले।

जो ताकत में कमी होती हो महसूस,
तो फिर मुलतानी-मिस्री की डली चूस्।

ज़्यादा गर दिमाग़ी हो तैरा काम,
तो खाया कर मिला कर शहद-ओ-बादाम्।

अरे! अरे…… ये क्या है?…क्यां थोंसे जा रही हो मैरे मुंह में।
फ़िज़ा: "कुछ नही राजा , बादाम है, आजकल तुम दिमाग़ से बहुत काम ले रहे हो, खालो, कल शहद भी ला दुंगी।"
पता नही, बादाम कितनी महंगी पड़ेगी, मैने मन में सोचा, बोला नही कि उसका भ्रम टूटे।

*इफ़ाक़ा= फ़ायदा, फ़ाक़ा=उपवास, ज़ोअफ़े जिगर= जिगर की कमज़ोरी, अज़लात= अव्यव्।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

काला बन्दर

काला बन्दर
फ़िज़ा: "प्यारे चन्दू, तुम समीर लालजी को टिपियाते क्यो नही?" फ़िज़ा अचानक बोल पड़ी, आज वह बहुत खुश लग रही थी।
मै: "क्या नही टिपियाता? कौन समीर लाल जी?"
फ़िज़ा: "अरे! वही उड़न तशतरी वाले"
मै: "अच्छा-अच्छा, आज उनकी याद क्यों आयी अचानक, वे तो परदेस रहते है, और टिपियाने से क्या होगा?"
फ़िज़ा: "देस ही में है आजकल, कोई साल-गिरह मना रहे है, पार्टी भी रखी, केक की फोटो भी छपत है; बन्दरिया बिठाईके, दावत ही मिल जाती टिपियाते तो।"
मै: "तुम्हे तो केक पसन्द नही, क्या करती?"
फ़िज़ा: " 'काला बन्दर', उससे तो भेंट हो जाती।"
मै: " कौन काला बन्दर?, देखो अब तुम इधर-उधर मत देखा करो, समझी।"
फ़िज़ा: "सुनो जी, बहुत प्यारा है, देखो, हम फोटो का प्रिन्ट-आउट भी लिये है, किसी दिल्ली नाम की फ़िलम में भी काम किये है।"
मै: "अरे! वह तो विलन के रोल में है, हमारी बिरादरी का नाम खराब किया है।"
फ़िज़ा: "मगर है कितना सेक्सी, हाऊ क्युट, आई लाईक हिम्।"
मै: ''ओइ तू ये क्या बकवास किये जा रही है और ये बाते कहाँ से सीख आई है।"
फ़िज़ा: "बम्बईया छत पर तुम कविता लिखत रहे, हमने कई पत्रिकाएं देख डाली।" [घर में न पढ़ी जा सकने वाली पत्रिकाएं छत पर मिल जाया करती है!]
मै: "इसका मतलब तुम्हारी रुचि भी अब घटिया होती जा रही है।"
फ़िज़ा: "मैरा क्या दोष, तुम जैसी सोहबत वाले घर पर बसेरा करोगे वैसा असर तो आयेगा ही ना?
मै: "आज से तुम्हारा पढ़ना बन्द्।"
फ़िज़ा: "देखो जी, ये तालिबानी हरकत है, कल से तो तुम रस्सी में बांध दोगे मुझे, मदारी की तरह्।"
मै: " देखो फ़िज़ा मैरा मतलब है कि…
फ़िज़ा: "…कि तुम्हारी गुलाम बन कर रहूँ, यही ना।"
मै: "गुलामी की बात नही , हम दोनो ने बाकायदा शादी की है, हमें वफ़ादार रहना है एक दूसरे के प्रति, मनुष्यो से हम कुछ तो सीखे।"
फ़िज़ा: "वो 'चाँद खाँ' साहब जैसा ?
मै: "देखो फ़िज़ा, हुज्जत मत करो, ये तस्वीर मुझे दे दो।"
फ़िज़ा: "इसमें क्या बुराई है, तुम्हारे 'आदर्श' मानव समाज में भी तो लड़कियाँ अमिताभ जी की तस्वीरें सजाएं फ़िरती है!"
मै: ''तुम कहाँ सजाओगी? कोई एक घर है तुम्हारा।"
फ़िज़ा: "थीक है मै दे दूंगी, बल्कि फाड़ कर फैंक दूंगी, मैरी एक बात मानो तो।"
मै: ''क्या बात?"
फ़िज़ा: "मुझे वो दिल्ली वाली फ़िलम दिखा लाओ, तुम काला सूट पहन लेना, मुँह तो काला है ही, लोग समझेंगे इसी फ़िल्म का कलाकार आया प्रोमोशन के लिये, मैरे भी ठाठ रहेंगे।"
मै: ''अरे वाह मैरी फज्जो! कौनसी मैग्ज़ीन पढ़ ली तू ने, झान चक्षु खुल गये तैरे तो। मै तो समझता था तैरे भेजे में गौबर भरा है, वाह मैरी 'जलेबी' क्या आईडिया है, एसा तो मै भी नही सोच सकता था… डोने।"
फ़िज़ा: डोने नही 'डन', 'इ' साईलेन्ट है, मैरे चन्दरमा, वो मैरे लिए भी लाल साड़ी ले आना ना!"
मै: "थीक है, थीक है, मगर वो पल्लु का ख्याल रखना।"
फ़िज़ा: "ऊँह"
[शाम 6 बजे… डन्थल सिनेमा के सामने आटो-रिक्शा से उतर कर, ब्लैक सूट-लाल साड़ी में एक jodaa थियेटर की तरफ़ आता है, स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया स्वरूप सीटीयों और तालियों से स्वागत!, शौर सुनकर मेनेजर बहर लपकते हुए, जिसे फ़िल्म युनिट के किसी कलाकार का इन्तेज़ार था, बाहर आया, निराश नही हुआ, मन में बोला, चलेगा…। हाल में ले जा कर स्वागत किया, आरती उतारी, कम दर्शको ने भी हाऊसफ़ुल वाला शौर पैदा किया । मिठाई का प्रसाद खिलाया, सबसे ऊंचे स्थान पर बिठा कर शो शुरु किया। आज पब्लिक पर्दे के बजाय पलट-पलट कर इस जोड़े को निहार रही थी। अपनी आदत के खिलाफ़ आज चांद मियां शरमा रहे थे जबकि उनकी जलेबी का सीना गर्व से फूला जा रहा था।]

मै: "सुनो, अब कलाइमेक्स आ गया है, पब्लिक अब हमें प्यार की बजाय गुस्से से देख रही है, कहीं पिट न जाए?"
फ़िज़ा: "चलो, मै भी कुछ एसा ही सोच रही थी।"

['दि एन्द' होने पर जब लाईट जली तो पब्लिक को विशेष अतिथि ग़ायब मिले, हल्का सा शौर उठा और दब गया।]

फ़िज़ा: [घर की छत पर पहुंच कर] "अंत में क्या हुआ होगा?"
मै: "कुछ नही, एक समीक्षक ने लिखा था - ''बन्दर कहीं का!'
फ़िज़ा: "गधा कहीं का!"
मै: "कौन?"
फ़िज़ा: "हर कोई, होली के सीज़न में हर एक को गधापन अच्छा लगता है।"

काला बन्दर

सोमवार, 2 मार्च 2009

मुम्बईया कविता

मुम्बईया कविता
मुम्बईया हिन्दी बोलने वाले एक परिवार के घर की छत पर बैठना नसीब हुआ। 'आएला', 'गएला', 'खाएला' सुन-सुन कर 'सोच' में जो लयबद्धता सी आ रही है, क्यों न इसे में कविता में रुपांतरित करदुँ। ब्लोगिन्ग के क्षेत्र में कविता लिखना और छापना जितना आसान है उतनी आसान कोई कला मैरी नज़र से कोई दूसरी नही गुज़री! बहर, वज़न वगैरह तो अभी समझ नही पा रहा मगर ये 'ला' पे समाप्त होने वाले 'काफ़िये''तो झुण्ड के झुण्ड मैरे समक्ष ऐसे आ रहे है जैसे मैं केले के व्रक्ष पर सवार हो हाथ साफ़ कर रहा हूँ। उत्साह यूं भी बढ़ा हुआ है कि कोई आलोचना तो होना नही, क्योंकि अधिकांश टिप्पणियाँ जो 'बाय'डिफ़ाल्ट' सहेजी गयी है वे 'सुन्दर', 'बहुत सुन्दर', 'रोचक', 'बहुत खूब' वगैरह-वगैरह तक ही सीमित है। मैरे उत्साह वर्द्धन के लिये प्रयाप्त है। बस! उदारवादी पाठकगण 'कोपी'+पेस्ट' का कष्ट ग्वारा करले! हाँ, मैडम जोगलेकर से डर है, जिन्होंने एक सीनियर ब्लोगर को गाड़ी के नीचे चलने वाले प्राणी से उपमा देने में भी संकोच नही किया था या फ़िर एक कानूनविद महोदय से जिनकी सहित्यिक टिप्पणी बड़ी सटीक होती है - बेलाग्। इस प्रार्थना के साथ की इन महनुभावो की क्रपा द्रष्टि से मैरी प्रथम कविता बच निकले…… लिख ही मारता हुँ:-

अकेले है,थकेले है,
सुरा पी कर पड़ेले है।

रईसी में पलेले है,
बिगड़ कर भी बनेले है।

सियासत से भरेले है,
उखड़ कर भी जमेले है।

बिगड़ बैठे, रुठेले है,
हुई शादी?,बचेले है।

बुढ़ऊ लेकिन नवेले है,
बिना ढक्कन टपेले है।

चमेली बिन चमेले है,
पतंग बन कर कटेले है।

मग़ज़ के ये सड़ेले है,
न छेड़ो ये तपेले* है।

कवि-बन्दर, पढ़ेले* है?
नही, पत्थर-गुलैले है।

नोट:- अब गुलैल और पत्थर दोनो मेरे हाथ में है……अगर टिप्पणी नही दी तो……!

*तपेले= तपे हुए, पढ़ेले= पढ़े-लिखे ।

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

भिखारी

भिखारी

चौंकिये मत! टाईटल देखकर, मै कोई साम्य्वादी विचार धारा का लेखक नही, आधुनिक ब्लाँगर हूँ। अब आप मैरे ब्लाँग 'चौथा बंदर'' पर ही पधारे है तो परिचय देने की आवश्यकता कहाँ? पहले भी हम दो-तीन ब्लागों पर आमने-सामने हो चुके है [अथ श्री मानव कथा, अथ श्री बंदर कथा एवं चौथा बंदर में...http://mansooralihashmi.blogspot.com]। अब क्योंकि हमारे समाज में सामाजिक एवं राजनैतिक गतिविधिया सीमित है और आर्थिक तो न के बराबर इसलिये विषय का बड़ा टोटा है। ले-दे कर समुन्नत मानव समाज पर ही नज़र जाती है। वैसे भी मनुष्यों ने हमे सब जगह मुँह मारने वाला प्राणी घोषित कर ही रखा है तो हम उनकी बात को ग़लत भी क्यों होने दे। अब भूमिका छौड़ कर सीधे काम की बात:

आज सुबह मै और मैरी 'फ़िज़ा', ज़ी हाँ, अब वह पुर्णयत: मैरी हो गयी है, कोई धर्म-वर्म भी बदलना नही पड़ा उसके लिये। शादी के बाद से उसको यह नया नाम दे दिया है, इससे उसके हुस्न में चार 'चाँद' लग जाते है, जब वह अपना नाम सुनकर शरमाती है तो। वह भी प्यार से मुझे 'चाँद साहब' पुकारती है। लिखने-पढ़ने से हम में मनुष्यो जैसे अदब-आदाब भी आ ही गये है। धर्म के अलावा रंग भेद भी हमारे आड़े नही आया, हालाँकि मै कलमुँहा और वह लालमुँही। मनुष्यो को तो 'ओबामा त्योहार' हज़ारों वर्षो में कभी मनाने मिलता है।

हाँ तो मैं कह रहा था कि आज हम दौनो एक बंगले की छत पर बैठे हुए थे [अब थौड़ी सम्पन्नता आ जाने के बाद और शादी भी हो जाने पर आम मकानो पर बैठना कम ही रुचिकर लगता है। सर्दी कि धुंध भरी सुबह में बंगले के दरवाज़े के बाहर निकल कर बंगले के मालिक 'सेठजी' बैचेनी से टहल रहे थे। आँखे फाड़-फाड़ कर चारो और देख रहे थे, बार-बार कलाई-घड़ी भी देखते जा रहे थे। उसी समय बंगले के दरवाज़े के पास से एक ज़नाना आवाज़ उभरी, "क्या हुवा जी, 6 बजने में दो ही मिनिट शेष है, पण्डित जी ने फ़ोन पर बताया है कि 6 बजे पूर्व ही दान हो जाना चाहिये।" अब मैरी समझ में सेठजी की परेशानी का सबब आया, उनकी बंद मुठठी में रुपयो की झलक दिखी। छतो पर बैठने भर की सोहबत से मनुष्य की इस संस्क्रति से से परिचित हो ही गया हुँ कि कुछ ले-दे कर कष्टो का निवारण हो जाता है। मुझे तुरंत ही विचार आया कि क्यों न सेठजी के कष्टो का निवारण मै ही कर दूं, कुछ 'ले' कर ही सही। संयोग से मैरा कद भी उंचा है और ब्लागरी की सभ्यता ने वस्त्रधारी भी बना दिया है, फ़िर 'फ़िज़ा' को तो मै निर्वस्त्र रख ही नही सकता था। आज तो सूट भी चढ़ा रखा है कि हाश्मीजी की बर्थडे [22।02।09] का न्योता भी तो है। मै झट से नीचे कूदा और थौड़े से फ़ासले पर जा कर सड़क पर पहुंच कर दो पांवो पर चलते हुए आगे बढ़ने लगा। जैसा कि अनुमान था सेठजी मैरी तरफ़ लपके और मैरे बढ़े हुए हाथ में कुछ रुपये थमा कर पलट कर भाग लिये। कोहरे की धुंध अभी छटी नही थी, मै वापस छत पर आ लिया। 'फ़िज़ा' नोट गिनने बैठ गई। उधर तेज़ी से पलटते हुए सेठजी की मुठभेड़ दूसरी तरफ़ से आ रहे जिस वयक्ति से हो गयी वह मैरे ब्लाग-गुरु हाश्मीजी निकले [ये नये किस्म के गुरु ब्लागिन्ग की ही देन है]। दोनो भी आपस में परिचित ही निकले, फ़ायदा यह हुआ कि उनके वार्तालाप से 'उस' दान की वास्तविकता जानने का अवसर मिल गया जो इस प्रकार हो रही थी:-
सेठजी: माफ़ करना हाश्मीजी लगी तो नही?
हाश्मीजी: नही जी, कोई बात नही, मगर आप इतनी सुबह और एसी जल्दी में?
सेठजी: इस आर्थिक मण्डी के दौर में भी भिखारियों का अभाव आश्चेय जनक नही?
हाश्मीजी: तो अभी आप किसी को भिक्षा दे कर पलट रहे थे, सड़क पर से!
सेठजी: नही भाई, दान था वह तो। आज रात श्रीमती ने कोई भयावह स्वप्न देखा था, मैरी दुर्घटना हो जाने का,
वह नही चाह्ती कि मैं जल्दी पीछा छुड़ा लूँ। हाथो-हाथ सुबह 5 बजे ही पण्डितजी को फ़ोन कर निवारण पूछ लिया, वह यह कि 6 बजे पूर्व ही मैरे हाथो दान करवा दे - 'बला टल जाएगी'। इधर है कि घंटे भर से कोई भिखारी ही नही आ रहा था, कैसा अजीब शहर है यह! वह तो आख़री मिनिट में मैरा काम हो गया, नही तो आज दिन भर श्रीमती पर जाने क्या बीतती।
हाश्मीजी: क्या आपको यकीन है कि आपने जिसको दान दिया वह भिखारी ही था! [आश्चर्य-मिश्रित जिझासा थी हाश्मीजी के स्वर में जिससे मुझे आशंका हुई कि हाश्मीजी मुझे पहचान गये थे।]
सेठजी: क्या मतलब! भिक्षा और कौन स्वीकार करेगा?

इधर 'फ़िज़ा' जो बार-बार नोट गिन रही थी बड़बड़ाई, "मारवाड़ी कही का, मुझे निन्यानवे के फ़ेर में डाल दिया।", मैने पूछा क्या बात है?,
बोली "सौ में एक कम निकला।", मैरे यह कहने पर कि, शायद सड़क पर मैरे हाथ से कुछ गिरा था, तुरन्त ही नीचे छलांग मार दी, बाकी का रुपया ढूंडने। इधर सेठजी बंगले में चल दिये, मगर हाशमी जी की नज़र 'फ़िज़ा' पर पड़ ही गयी, जो एक नोट थाम कर बंगले की तरफ़ वापस लपक रही थी। उनकी नज़र सीधे छत की तरफ़ उठी, निश्चित ही मुझे ढूंडने के लिये। मैने भी हाथ हिला कर अभिवादन कर दिया। उनके चेहरे की मुस्कुराहट पर मैने यह पढ़ा कि अच्छा है, मनुष्य की 'बला' किसी बन्दर पर 'टल' गई।

-मन्सूर अली हाश्मी [22-02-2009]