काला बन्दर
फ़िज़ा: "प्यारे चन्दू, तुम समीर लालजी को टिपियाते क्यो नही?" फ़िज़ा अचानक बोल पड़ी, आज वह बहुत खुश लग रही थी।
मै: "क्या नही टिपियाता? कौन समीर लाल जी?"
फ़िज़ा: "अरे! वही उड़न तशतरी वाले"
मै: "अच्छा-अच्छा, आज उनकी याद क्यों आयी अचानक, वे तो परदेस रहते है, और टिपियाने से क्या होगा?"
फ़िज़ा: "देस ही में है आजकल, कोई साल-गिरह मना रहे है, पार्टी भी रखी, केक की फोटो भी छपत है; बन्दरिया बिठाईके, दावत ही मिल जाती टिपियाते तो।"
मै: "तुम्हे तो केक पसन्द नही, क्या करती?"
फ़िज़ा: " 'काला बन्दर', उससे तो भेंट हो जाती।"
मै: " कौन काला बन्दर?, देखो अब तुम इधर-उधर मत देखा करो, समझी।"
फ़िज़ा: "सुनो जी, बहुत प्यारा है, देखो, हम फोटो का प्रिन्ट-आउट भी लिये है, किसी दिल्ली नाम की फ़िलम में भी काम किये है।"
मै: "अरे! वह तो विलन के रोल में है, हमारी बिरादरी का नाम खराब किया है।"
फ़िज़ा: "मगर है कितना सेक्सी, हाऊ क्युट, आई लाईक हिम्।"
मै: ''ओइ तू ये क्या बकवास किये जा रही है और ये बाते कहाँ से सीख आई है।"
फ़िज़ा: "बम्बईया छत पर तुम कविता लिखत रहे, हमने कई पत्रिकाएं देख डाली।" [घर में न पढ़ी जा सकने वाली पत्रिकाएं छत पर मिल जाया करती है!]
मै: "इसका मतलब तुम्हारी रुचि भी अब घटिया होती जा रही है।"
फ़िज़ा: "मैरा क्या दोष, तुम जैसी सोहबत वाले घर पर बसेरा करोगे वैसा असर तो आयेगा ही ना?
मै: "आज से तुम्हारा पढ़ना बन्द्।"
फ़िज़ा: "देखो जी, ये तालिबानी हरकत है, कल से तो तुम रस्सी में बांध दोगे मुझे, मदारी की तरह्।"
मै: " देखो फ़िज़ा मैरा मतलब है कि…
फ़िज़ा: "…कि तुम्हारी गुलाम बन कर रहूँ, यही ना।"
मै: "गुलामी की बात नही , हम दोनो ने बाकायदा शादी की है, हमें वफ़ादार रहना है एक दूसरे के प्रति, मनुष्यो से हम कुछ तो सीखे।"
फ़िज़ा: "वो 'चाँद खाँ' साहब जैसा ?
मै: "देखो फ़िज़ा, हुज्जत मत करो, ये तस्वीर मुझे दे दो।"
फ़िज़ा: "इसमें क्या बुराई है, तुम्हारे 'आदर्श' मानव समाज में भी तो लड़कियाँ अमिताभ जी की तस्वीरें सजाएं फ़िरती है!"
मै: ''तुम कहाँ सजाओगी? कोई एक घर है तुम्हारा।"
फ़िज़ा: "थीक है मै दे दूंगी, बल्कि फाड़ कर फैंक दूंगी, मैरी एक बात मानो तो।"
मै: ''क्या बात?"
फ़िज़ा: "मुझे वो दिल्ली वाली फ़िलम दिखा लाओ, तुम काला सूट पहन लेना, मुँह तो काला है ही, लोग समझेंगे इसी फ़िल्म का कलाकार आया प्रोमोशन के लिये, मैरे भी ठाठ रहेंगे।"
मै: ''अरे वाह मैरी फज्जो! कौनसी मैग्ज़ीन पढ़ ली तू ने, झान चक्षु खुल गये तैरे तो। मै तो समझता था तैरे भेजे में गौबर भरा है, वाह मैरी 'जलेबी' क्या आईडिया है, एसा तो मै भी नही सोच सकता था… डोने।"
फ़िज़ा: डोने नही 'डन', 'इ' साईलेन्ट है, मैरे चन्दरमा, वो मैरे लिए भी लाल साड़ी ले आना ना!"
मै: "थीक है, थीक है, मगर वो पल्लु का ख्याल रखना।"
फ़िज़ा: "ऊँह"
[शाम 6 बजे… डन्थल सिनेमा के सामने आटो-रिक्शा से उतर कर, ब्लैक सूट-लाल साड़ी में एक jodaa थियेटर की तरफ़ आता है, स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया स्वरूप सीटीयों और तालियों से स्वागत!, शौर सुनकर मेनेजर बहर लपकते हुए, जिसे फ़िल्म युनिट के किसी कलाकार का इन्तेज़ार था, बाहर आया, निराश नही हुआ, मन में बोला, चलेगा…। हाल में ले जा कर स्वागत किया, आरती उतारी, कम दर्शको ने भी हाऊसफ़ुल वाला शौर पैदा किया । मिठाई का प्रसाद खिलाया, सबसे ऊंचे स्थान पर बिठा कर शो शुरु किया। आज पब्लिक पर्दे के बजाय पलट-पलट कर इस जोड़े को निहार रही थी। अपनी आदत के खिलाफ़ आज चांद मियां शरमा रहे थे जबकि उनकी जलेबी का सीना गर्व से फूला जा रहा था।]
मै: "सुनो, अब कलाइमेक्स आ गया है, पब्लिक अब हमें प्यार की बजाय गुस्से से देख रही है, कहीं पिट न जाए?"
फ़िज़ा: "चलो, मै भी कुछ एसा ही सोच रही थी।"
['दि एन्द' होने पर जब लाईट जली तो पब्लिक को विशेष अतिथि ग़ायब मिले, हल्का सा शौर उठा और दब गया।]
फ़िज़ा: [घर की छत पर पहुंच कर] "अंत में क्या हुआ होगा?"
मै: "कुछ नही, एक समीक्षक ने लिखा था - ''बन्दर कहीं का!'
फ़िज़ा: "गधा कहीं का!"
मै: "कौन?"
फ़िज़ा: "हर कोई, होली के सीज़न में हर एक को गधापन अच्छा लगता है।"